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Showing posts from April, 2020

रमज़ान मुबारक

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@jaunsee

हिज्र का शहद

हिज्र का शहद  तुम्हारी यादें शहद की मक्खी जैसी हैं कानों की लौ के पास भिनभिनाती हैं मुझे काट के जाती हैं! गर्दन पर कभी , कभी होंटों पर !! ये उन लम्हो पे जा जा के उनका रस पीतीं हैं जो हमने साथ गुज़ारे थे ! और बुन लेतीं हैं एक बड़ा सा छत्ता ! यादों का छत्ता ! जिसमें तुम्हारे हिज्र का शहद बनता है ! ये शहद मेरी नसों में बहता है लहू के साथ ! जाने मेरी कितनी ही बीमारियों का ईलाज है ये शहद तुम्हारे हिज्र का शहद !!

मैं नहीं करुँगी स्वीकार

मैं नहीं करुँगी स्वीकार इस बार..... अपना व तुम्हारा प्यार ! इस हार का हार है मुझको नागवार ऐ मेरे हम कनार ! मैं नहीं करुँगी स्वीकार इस बार..... क्योंकि जब जब मैंने स्वीकारा है किसी से अपने प्यार को तब तब मैंने पक्का किया उस रिश्ते की हार को आहिस्ता आहिस्ता खोया है प्यार के अहसास को और फिर ज़िन्दा किया है एक अनमिट प्यास को ये मुस्लसल प्यास ये दरमियान के सिलसिले इस बार हरगिज़ मिटेंगे नहीं ख़्वाहिशों के क़ाफ़िले इस बार नहीं मानूँगी हार मैं नहीं करुँगी स्वीकार अपना व तुम्हारा प्यार !

ये मेरा ख़्वाब है

ये मेरा ख़्वाब है हाँ ये मेरा ख़्वाब ही तो है एक वीरान कमरे में जिसकी दीवारों पे ताज़ी पुताई है खाली पिंजरे की तस्वीर लगाई है मेज पे इक खाली गिलास पड़ा है जिसपे चांदी सा रंग चढ़ा है एक सियाह चादर पे, एक सुफ़ैद गुलाब है साथ में जौन एलिया की "शायद" किताब है !!! मैं बेलिबास , बे हवास पड़ी हूँ वहां मौन सी 'तुम' ग़ज़लें पढ़ कर के , सुना रहे हो जौन की एक फ्लॉवर पोट, गिर के छन से फूट गया ! ये मेरा ख़्वाब था , टूटना था, टूट गया ! अब इस वीरान कमरे में मैं हूँ सफ़ेद चादर पर और सियाह गुलाब है मेरे जौन एलिया की पसन्दीदा किताब है ! ग़ज़लें पढ़ रही हूँ मैं, इस वीरान कमरे में साँसे गिन रही हूं मैं, इस वीरान कमरे में !! साँसे गिन रही हूं मैं, इस वीरान कमरे में !!

एक बंजारन गेरुए रंग का दुप्पट्टा ओढ़े

एक बंजारन गेरुए रंग का दुप्पट्टा ओढ़े सर पे माज़ी की गठरी उठाये उसी गली में जाना चाहती है जहां से वो ये गठरी ढो के लायी थी ये बोझ वहीं खाली कर के आना चाहती है और वहां से अपना कँगन लेके आएगी इस बार वो कँगन जो उस गली के दो मंजिला मकान के ऊपर वाले कमरे में मेज़ पर छूट गया ! लेकिन हर बार कमरा अंदर से बंद मिलता है और हताश बंजारन माज़ी की गठरी उठाये फिरती रहती है ....फिरती रहेगी ! जब तक उम्र का शहर पार नहीं हो जाता ....

'तीन का पहाड़ा'

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असरार ए हस्ती वो मोनार्च तितली जो

असरार ए हस्ती वो मोनार्च तितली जो लार्वा से प्यूपा बनी उसको टोका गया ! और अब वो प्यूपा से ख़ूबसूरत मोनार्च तितली बन चुकी है अब वो उड़ेगी तेज़ी से दूर गगन में अपनी पसन्द के फूल का रसपान करेगी लाख रोका करे कोई !

आख़िरी ख़्याल

तवील रातों में , मेरे ज़हन में ठीक नींद से पहले ये जो आख़िरी ख़्याल आता है मैं सच कहती हूँ ! आज तीन साल बाद भी वही है जो तीन साल पहले था ! हाँ पागल !!! सच में तुम ! क़सम से तुम !! बस कह दिया "तुम" !!!

नहीं पता था कि ये इस तरह सताएगी

नहीं पता था कि ये इस तरह सताएगी तुम्हारी याद मुझे ला मकां बनायेगी  नहीं कहीं भी नहीं कोई ख़्वाब-गाह अपनी तुम्हारी आँख मुझे आसरा दिलाएगी !!

अश्कों से बारिश

अश्कों से बारिश लिक्खा है तुमको ये सब कब दिखता है !

मुझे सरापा मोहब्बत कहने वाले

मुझे सरापा मोहब्बत कहने वाले मैं मोहब्बत हूँ ! मोहब्बत थी ! और मोहब्बत ही रहूँगी .....! लेकिन अधूरी ..... तुम्हारी अधूरी मोहब्बत !!!

दूज का चाँद

दूज का चाँद और उसकी बातें  पूछो ये दर्द-ए-निहानी* मुझसे !

'कातिब' क्यों कहते थे तुम

'कातिब'  क्यों कहते थे तुम ख़्वाब में कोई पढ़ नहीं सकता कि पढ़ना और ख़्वाब देखना दिमाग के अलग अलग हिस्सों के काम हैं तो फिर क्यों ख़्वाब में तुम एक सब्ज़ दीवार पर सुर्ख़ सियाही से मेरा और अपना नाम लिखते हो? कैसे मैं पढ़ लेती हूँ काश! ये दीवार ही किस्मत होती मेरी काश!

उनकी आवाज़ के सिक्के

उनकी आवाज़ के सिक्के तन्हाई के कासे में यूँ छनछनाये मानो संगीत हो, राग हो जिसपर मन यूँ नाचता है, जैसे जोगन जैसे कोई अल्हड़ नदी खेलती कूदती बहती हो रात दो बजे याद की हवा थकी जोगन के पसीने से भीगे बदन को यूँ सहलाती है जैसे ज़ख़्म पे मरहम लगाए कोई ये बस तसव्वुर है, बस तसव्वुर!

अक्सर तवील सियाह रातों में

अक्सर तवील सियाह रातों में  एक ख़्वाब जागती आँखों से  दिल में उतरता है  उस ख़्वाब में मैं  मेरे फैले हुए हाथों में  नीली स्याही से जाने किस से  मिलन की लकीर बनाती हूँ  स्याही उलट जाती है  मेरे फैले हाथ,  मेरी आँखें,  मेरे ख़्वाब  सब नीले हो जातें हैं  यहाँ तक की  तवील सियाह रातें भी

अब जब सारी आवाज़ें ख़ामोश हैं

अब जब सारी आवाज़ें ख़ामोश हैं  और अजीब सा सुनापन पसरा है  सब तरफ़ तब याद की वीणा का तार क्यूँ छेड़ दिया मैनें!! क्यों ये स्वर  आकाशगंगाओं तक हो के  खाली लौट आ रहा है!  क्यों तुम्हारी सुरीली आवाज़ इसके सुर में सुर नहीं मिला रही! तुम सुनना भूल गए हो या बोलना??

'वन ओ क्लॉक' @jaunsee

'वन ओ क्लॉक' रात के एक बजे  कुछ अजीब कैफ़ियतें तारी होती हैं  तुम्हे याद करके नदियाँ जारी होती है! काश ! तुम आते इन्हें रोकने,  इनमें बहने पर नहीं !! ये बहती हैं !!  दुपट्टा , तकिया , चादर भिगोती हैं !!!